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आ नो॑ मित्र सुदी॒तिभि॒र्वरु॑णश्च स॒धस्थ॒ आ। स्वे क्षये॑ म॒घोनां॒ सखी॑नां च वृ॒धसे॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no mitra sudītibhir varuṇaś ca sadhastha ā | sve kṣaye maghonāṁ sakhīnāṁ ca vṛdhase ||

पद पाठ

आ। नः॒। मि॒त्र॒। सु॒दी॒तिऽभिः॑। वरु॑णः। च॒। स॒धऽस्थे॑। आ। स्वे। क्षये॑। म॒घोना॑म्। सखी॑नाम्। च॒। वृ॒धसे॑ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:64» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:2» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्र) मित्र आप और (वरुणः) श्रेष्ठ जन ! आप दोनों (सुदीतिभिः) अच्छे प्रकाशों से (मघोनाम्) प्रशंसित धन जिसके ऐसे (सखीनाम्) मित्रों और (नः) हम लोगों को (वृधसे) वृद्धि के लिये (स्वे) अपने (क्षये) निवास स्थान में (आ) सब और बसिये (सधस्थे, च) और तुल्यस्थान में (आ) सब ओर से बसिये तथा हम लोग भी आप दोनों के निवास स्थान (च) और तुल्यस्थान में बसें ॥५॥
भावार्थभाषाः - वे ही मित्र श्रेष्ठ हैं, जो परस्पर की उन्नति के लिये सुख दुःख और सङ्ग में प्रयत्न करते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मित्र त्वं वरुणश्च युवां सुदीतिभिर्मघोनां सखीनां नो वृधसे स्वे क्षय आ वसत सधस्थे चाऽऽवसतं वयं च युवयोः क्षये सधस्थे च वसेम ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (मित्र) सखे (सुदीतिभिः) प्रशस्तप्रकाशैः (वरुणः) श्रेष्ठः (च) (सधस्थे) समानस्थाने (आ) (स्वे) स्वकीये (क्षये) निवासे (मघोनाम्) प्रशंसितधनानाम् (सखीनाम्) मित्राणाम् (च) (वृधसे) वर्धितुम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - त एव सखायः श्रेष्ठाः ये परस्परोन्नतये सुखदुःखे सङ्गे च प्रयतन्ते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे परस्पर उन्नतीसाठी सुखदुःखात सोबत करतात व प्रयत्नशील असतात तेच मित्र श्रेष्ठ असतात. ॥ ५ ॥